लेखक शंखधर दुबे वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, उनके लेख वर्तमान साहित्यक परिप्रेक्ष्य में श्रेष्ठता की श्रेणी में आते हैं।
भगवत कृपा से कुछ अपने करम और कुछ दूसरों की मेहरबानी से मेरे जीवन में बदनाम होने और बेइज़्ज़त होने के मौकों की कोई कमी नहीं रही.मजे की बात यह है कि अभी भी इसमें कोई कमी नहीं आयी है.इसी क्रम में यह घटना विशेष तब की है जब मैं दर्जा 9 में पढ़ता था.यह तो सिर्फ भौतिक बात हुई कि मैं 9वीं में पढता था पर आध्यात्मिक बात यह थी कि उन दिनों फ़िल्मकार बनने के सपने ने मुझे काट खाया था जिसके चलते मेरे जीवन हरेक पल सिनेमॉटिक अनुभव में तब्दील हो गया था जिसके प्रभाव में जीवन, जगत में जो कुछ भी घटित हो रहा था “इसे सिनेमा के मुहावरे में कैसे कहेँगे” की खोज को समर्पित रहता था.लिहाज़ा आध्यात्मिक रूप से मेरा बौद्धिक स्तर तीसरे क्लास का मतलब थर्ड क्लास का था. इस अधम किस्म की आध्यात्मिक यात्रा तथा पढ़ाई के ज़रूरी उपादान जैसे किताबें, कॉपियां और पेन इत्यादि के अभाव के चलते मन डबल शिफ्ट की शूटिंग में लगा रहता था और तन स्कूल की फील्ड़ में आराम फरमाता था. इसका सुपरिणाम यह हुआ कि छमाही के अलावा मैं सालाना परीक्षा में भी सम्मान फेल हुआ.छमाही परीक्षा से तुरंत पहले मुझे मामा के यहाँ जाने का सौभाग्य मिला. अलबत्ता मामा के साथ पैदल पैदल ही जाना था यानि बस्ती से अम्बेडकर नगर तत्कालीन फैज़ाबाद.(मामा की कहानी फिर कभी)दुबौलिया बाजार से दक्षिण में अथाह बिखरी रेत मुझे जीवन की विराटता का अनुभव करा रही थी और मेरा फ़िल्मकार उस पर एक रोमांटिक सीक्वेंस शूट कर रहा था.लेकिन सेरवा घाट पर जब हिलती नाव में बैठा तो डर से मामा के पास दुबक गया रोमांटिक सीक्वेंस स्थगित करके हॉरर पर आप गया. कुल मिलाकर मैं इतना डर गया कि आँख में बड़ी बड़ी आँखों में गहरा काजल लगाए बैठी हमउम्र लड़की को देखना भी भूल गया. शुरूआती हालचल के बाद ज़ब नाव धारा में पहुंची तो लड़की निर्मल जल देख रही थी और मैं मामा की टेक लिए कनखियों से निर्मल लड़की के चेहरे पर कैमरा क्लोज अप में लगाए बैठा था.बीच धार में नाव ने ऐसा झटका दिया कि मेरे मुंह से चीख निकल गयी.इससे नाव में मेरे बगल ही खड़ी बकरियां भागने लगीं और लड़की को हंसी आ गयी. उसके साथ की औरत ने, जिसके अपने घूंघट के एक सिरे को दाँत में दबा रखा था, इशारे से लड़की को बरज दिया.पर लड़की मंद स्मिति में अटक गयी थी. मामा ने भांजे का हौसला बढ़ाया और जनता को बताया कि भांजा है और पहली बार नाव पर बैठा है.मामा मेरे बचपन के कायरता के क्रन्तिकारी किस्से कहने लगे अब मेरे पास सिवाय आँख बंद करके सो जाने के कोई चारा न था. लड़की अब आँखें और बड़ी करके मुझ डरपोक पर हँस रही थी। मामा आस पास के गांव और उनसे मेरे परिवार की रिश्तेदारियों के बारे में बताते चल रहे थे.उस अनदेखी जगहों के बारे में जहाँ हमारी आजियों -परपाजियों का बचपन बीता था, जहाँ से हमारी जड़ें जुडी थी, से गुजरते हुए उस अजनबी परिवेश तक में मुझे लग रहा था कि मैं अपने आँगन में ही चल रहा हूँ.आज ज़ब मैं उस अनुभव को फिर याद कर रहा हूँ तो लगता है कि जैसे उस दिन मैं प्रार्थनाओं के वलय में चल रहा हूँ. चिनगी,इलफ़ातगंज, गोसाईंगंज, महबूबगंज मिझौरा और पता नहीं कौन कौन से पड़ाव थे रास्ते में. मिझौरा में तब तक चीनी मिल नहीं बनी थी गांव गांव में कोल्हार चल रहे थे जिससे गाँव गुड़ की सोधी महक धुंएँ में लिपटे थे.रास्ते में कई जगह रुकना हुआ जहां मनुहार करके हमें गुड़ खिलाया गया गन्ने का ताज़ा हरा रस और गुलौरी की आग में भुने आलू, धनिया और लहसुन के पत्ते की चटनी परोसी गयी. देर शाम बेनीपुर पहुंचने के बाद मेरी ममेरी भाभियों ने शर्मीले देवर की पुत्रवत खातिरदारी की.सुबह उठा तो मामा नदारद थे.भाभियों से पता चला वे मैनेजर साहब के यहाँ गए होंगे.अब मैनेजर साहब कौन हैं यह तब तक नहीं पता चल पाया… अगली सुबह मामा मेरी जिज्ञासा के शमन के लिए मुझे खुद तैयार करा कर मैनेजर साहब के घर ले गए.
रविवार का दिन था.धूम में एक तख्त पड़ा था उसके आस पास दो तीन कुर्सियां रखी थी.मैनेजर साहब धूम में बैठे तेल फुलेल मलकर नहाने की तैयारी कर रहे थे.मामा और मामा के भांजे को सादर बिठाया.घर की तरफ मुख़ातिब होकर चाय पानी लाने का निर्देश दिया और खुद नहाने चले गए.अंदर से प्रत्युत्तर आया “लाइ पापा ” मैं कुर्सी ऐसे एंगल पर मोड़ लिया कि “लाइ पापा” पर नजर रखी जा सके. “लाई पापा” के तसव्वुर को चकनाचूर करते हुए एक कृशकाय लड़की एक ट्रे में धनिया की पत्तियों में लिपटी भाप निकलती मटर की घुघुरी, चाय लेकर आयी .लाई पापा को देखने से उपजी निराशा से उबरने के लिए मैं गरमा गरम घुघनी का एक बड़ा चम्मच भर कर उदरस्थ करने जा रहा था कि मामा ने कुहनी मारकर रोका और सरगोशियों में कुछ कहा जिसका आशय यह था कि हल से छूटे बैल की तरह नहीं आदमी की तरह खाओ. मैनेजर साहब पूजा पाठ करके आ गए थे.मामा दोनों हथेलियों को जोड़कर बिलम्बित लय में ताल दे रहे थे और मंद मंद मुस्कुरा रहे थे.मामा ने खंखारा जो उनकी चिर परिचित खंखार से अलग थी जिसमें आत्मविश्वास का पुट बहुत ज्यादा था. मुझे चौकन्ना होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ, मामा बोले ये मेरा भांजा है और डॉक्टरी पढ़ रहा है.खौलती चाय और मामा की बात का ऐसा असर हुआ कि चाय की कप छूटते छूटते बची.मैनेजर साहब ने अब उदीयमान फ़िल्मकार को फोकस में लिया फ़िल्मकार महोदय छुई मुई से सिकुड़ गए.उन्होंने अविश्वास से जानना चाहा कि मैंने सी.पी.एम. टी परीक्षा कब पास की. मामा को बचाने को कृतसंकल्पित भांजा सी.पी.एम. टी का नाम ही पहली बार सुन रहा था लिहाज़ा ज्यादा दूर ना जाकर तुरंत ही झूठ बोलने के इरादे छोड़ दिया और स्वीकार किया कि मैं अभी सिर्फ 9वीं में पढ़ रहा हूँ.उन्होंने मुझे परिश्रम से पढ़ने की सलाह दी और मामा को उनका प्रिय वाला जर्दा खिलाया और थोड़ी देर गपशप के बाद विदा किया. तो देवियों और सज्जनों बात यह थी कि मैनेजर साहब अपनी बी ए पास कृशकाय लड़की के लिए वर की तलाश में हलकान थे.मामा मुझे उनके सुपुर्द करके उनकी मदद करना चाह रहे थे. रास्ते भर मामा भांजे के बीच अबोला पसरा रहा.अगली सुबह मेरी सुबकती भाभियों ने मुझे विदा किया मामा मुझे सीधे दौड़ते हुए उन्ही राहों से घर ले आये और मेरी माँ और अपनी बहन से बोले “तुम्हारा यह लड़का बैल है” माँ ने अपने बैल को कलेजे से लगा लिया. कारण बैल बच्चे माँ को ज्यादा प्रिय होते हैं…… मामा ने जाने किस मुहूर्त में मुझे बैल कहा था !!बैलपन अब तक भी न गया।
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